
एक ही बैल ने कई कहानियां कह दीं, लेकिन तुम हो कि खबर नहीं । गोवंश के नाम पर जिनका खून खौलता, वे हकीकत में देखें कि रात के सन्नाटों में आवारा पशुओं के कारण किसान का दिल कितना डूबता है। हमारा खेत अगर सभी पशुओं को चारा नहीं दे सकता, तो कृषि नीति को कोसें या सस्ते राशन पे उजड़ते खेत को देखें। कभी पशुधन होता था, आज सडक़ पर खड़ा वह अपराधी है। होंगे अपराधी जो पांवटा साहिब की शांति में गोवंश के अवशेष यमुना किनारे छोडकर माहौल खराब कर गए, लेकिन किसान के खेत को आवारा पशु चट करते हैं, तो उसका पेट कटता है। विडंबना यह कि हिमाचल में नलवाड़ मेले पालतू पशुओं या गोवंश की याद में चल रहे हैं, लेकिन शुभारंभ के खूंटों पर माहौल उदास है। अब नहीं आती बैलों की जोड़ी वहां, लेकिन सुंदरनगर, बिलासपुर या किसी अन्य शहर के हर चौक पर आवारा पशु अब एक खौफनाक समुदाय है। गोवंश का आवारा होना हमारी योजनाओं का अंधापन है या वाकई इसका अब ग्रामीण समाज से कोई रिश्ता नहीं। वहां खेत में सबसिडी में टिल्लर आता है और किराए की मजदूरी में पूरी तरह जोत जाता है। ढूंढना अब हल कल के मुजारे के पास, क्योंकि लैंड सीलिंग एक्ट ने समाज से खेती और खेती की जरूरत छीन ली। आखिर राशन डिपो का सामान हिमाचल में तो नहीं उगता । यह दीगर है कि हिमाचल में दूध की मांग और दूध के उपभोक्ता बढ़ गए, लेकिन यह अब आयातित सामान है, रोज सुबह बाहर से आता है। पूर्व मुख्यमंत्री एवं केंद्रीय मंत्री रहे शांता कुमार गोवंश के संरक्षण की आवाज उठाते हैं। बेशक गऊ को माता का दर्जा देने वाले हम हिंदू और हमारी भावनाएं इन्हें लेकर किसी विवाद से आहत होती हैं। हम धार्मिक वैमनस्य की गलियों में तो गोवंश के समर्थन और सुरक्षा में एकजुट हो जाते हैं, लेकिन इनके आवारा झुंडों के करीब जाने से भी कतराते रहते हैं । जब पांवटा साहिब की भावनाएं उबाल बिंदु पर थीं, तब भी शहर के किसी कोने में कोई गाय आवारा थी। जब हिंदू संवेदना इस भूखंड पर प्रचंड थी, तब भी गोवंश का कोई सदस्य कूड़े में मुंह मार रहा था या प्लास्टिक चबा रहा था। हमारा आक्रोश अगर सही है, तो हम बता दें पूरे विश्व को कि गऊ माता को हम अपनी छत या सामुदायिक जिम्मेदारी से कितना प्रश्रय देते हैं। क्या गोवंश चौराहों पर आवारा परिक्रमा का दस्तूर बनकर जीए या आवारा होते ही इसके हिस्से का नवाला छीन लिया जाए। जब तक हमारी खेती और हमारी आर्थिकी गोवंश को पूरी तरह नहीं अपनाएगी, ये असहाय प्राणी अपनी खुराक की तलाश में किसान को रुलाएगा। काश वन संरक्षण अधिनियम की परिपालना से पहले हिमाचल ने पशुओं के चारे के लिए निर्धारित जमीनों पर चीड़ न उगाए होते। हमने वे सारी धारें बर्बाद कर दीं जहां हर मौसम, परिस्थिति और हर हालत में पशुओं को चारा मिला करता था । आज परिस्थितियां शांता कुमार की गली तक बिगड़ी हैं, तो वहां घूमते आवारा पशुओं के पीछे हम सभी मूकदर्शक हैं। गोवंश की प्रासंगिकता अगर जीवन में घट गई, तो हमारे सांस्कृतिक सरोकार कहीं न कहीं खोखले व दोगले हैं। इसी बीच कांगड़ा के कच्छियारी के हमिंद्र सिंह के बछड़े का मूल्य अगर पशुपालन विभाग तय कर रहा है, तो इस पशुपालक की प्रयोगशाला से तमाम गोवंश समर्थकों को सेवा भाव भी सीख लेना चाहिए।
