
तूफान और आंधी में कुछ सूझता नहीं, कामरेड, वह बोले । अब आपको क्या बताएं, उम्र भर इंतजार करते रहे, कि क्रांति का तूफान आएगा, बदलाव की आंधी झूलेगी। मर-मर कर जीते आदमी उठ बैठेंगे। उठे हुए चलने लगेंगे, चलते हुए दौड़ने लगेंगे। सपना देखा था आंधी झूलने का, लेकिन यह कैसी आंधी चली कि जीते हुए लोग जीते जी मुर्दा महसूस करने लगे, दौड़ते हुए रुक गए, और चलते हुए माथा पीट कर बैठ गए। कभी जगजीत गाया करते, ‘जो बेहोश है, होश में आएगा, गिरने वाला जो है वह संभल जाएगा।’ लेकिन यहां तो उल्टा हो गया साहिब, होशमंदों पर बेहोशी तारी हो गई और संभले हुए बिना फिसले गिरते पड़ते नजर आ रहे हैं। यह कैसे उल्टे बांस हैं जो बरेली जा रहे हैं? यह कैसी गंगा है जो उल्टी बह रही है ? अब क्या बताएं साहिब, सोचा कुछ, देखा कुछ, भाषण में सुना कुछ और अब पाया कुछ ऐसा कि पूरा अर्थतंत्र धडनतख्ता होता नजर आ रहा है। एक शहजादी की कहानी कभी हमने सुनी थी। ज्यों-ज्यों उसके पलंग गद्दे बढ़ते जा रहे थे, उसकी नींद और काफूर हो रही थी। बड़े-बड़े वैद्य बुलाए गए कि हमारी बिटिया की नींद लाओ। सब असफल, बिटिया का रतजगा खत्म होने में न आए। फिर एक गरीब सी बुढिया जो कभी इस राजकुमारी की आया थी, लाठी टेकती हुई आई। महाराज से गुजारिश की कि अलीजहां अगर हुवम हो तो हम कोशिश करके देखें। महाराजा ने हिकारत से बुढ़िया की ओर देखा । वह अंधेर नगरी के चौपट राजा थे। उन्होंने बूढ़ी की ओर हिकारत से ही नहीं देखा, गनीमत थी कि पहचान लिया। नहीं तो आजकल बूढ़ों को कौन भाव देता है ? इंतजार अच्छे दिनों का था, तोहफा मिल गया मंदी का। यहां तो काम के लिए जवान हो गए लोगों को काम नहीं मिलता। बरसों रोजगार दफ्तरों के बाहर एडियां रगड़ते हुए कभी न मिलने वाले नियुक्ति पत्रों का इंतजार करते रहते हैं । डाकिया उनकी गली का रास्ता भूल जाता है। सरकार दरबार में काम के लिए गुहार लगाओ तो अपने पैरों पर खुद खड़े होने का परामर्श है, और पकौड़े तलने का रास्ता दिखाया जाता है। हर हाथ को काम मिलने का सपना भी ध्वस्त नहीं हुआ, मंदी में बाजारों से लेकर खेत- खलिहान तक कुछ ऐसी मंदी छाई, कि चलते काम रुक गए, खेतीबाड़ी दम तोड़ते हुए परती परिकथा लिखने लगी । नगरी में रोजगार मेले लगते थे, वहां बेकारी दूर करने की जरूरत पर भाषण होने लगे, लेकिन सरकार अपनी दुकान बढ़ा कर निजी धनपतियों की बंधक बनती नजर आती रही। अभी बूढ़ी नानी की पोटली में उनके नाती नातिन यह पुचकार जमा करवा रहे हैं, कि मंदी फिर जलवाफरोश हो गई। देशी- विदेशी आंकड़ा शास्त्री उसकी दयनीय हालत का बखान करने लगे, लेकिन ऐसे आंकड़ों को स्वीकार करके मंदी के मकडजाल से निकलने की कोशिश करने वालों को देशद्रोही कह दिया गया। देश में करोड़ों लोग हैं जो दिनभर हाड़ तोडने के बाद सड़कों के टूटे फुटपाथों पर भी सो जाते हैं, लेकिन उधर राजा की राजकुमारी को पलंग के मखमली गद्दों पर भी नींद नहीं आती । इधर बुढिया को राजकुमारी को सुलाने का इशारा मिल गया कि जैसे मंदीग्रस्त देश में मरते काम-धंधों में करोड़ों छंटनी में आ गए कामगार बेकारों के हजूम को बढ़ कर उसे समावेशी विकास की जगह समावेशी रसालत का नाम देने लगे। उधर बुढिया ने राजकुमारी के उनींदेपन का इलाज बता दिया, कि इसके पलंग से सब गद्दे हटा दो। आखिरी गद्दे पर पड़ा एक मटर का दाना राजकुमारी की नींद हराम कर रहा था, उससे भी निजात पा लो । राजकुमारी आराम की नींद सो जाएगी। जी हां, राजकुमारी तो सो गई, लेकिन यह अंधेर नगरी, यह होश की जगह बेहोश होता देश कैसे जागेगा ।
