
शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए आहार का सेवन किया जाता है। धार्मिक दृष्टि से आहार शुद्ध और पवित्र होना आवश्यक है। उपनिषदों में कहा गया है कि ‘जैसा अन्न वैसा मन’ अर्थात हम जैसा भोजन करते हैं, उसी के अनुसार हमारा मानसिक विकास होता है। शुद्ध एवं उचित आहार भगवान की उपासना का एक अंग है। भोजन करते समय किसी भी अपवित्र खाद्य पदार्थ को ग्रहण करना निषिद्ध है। यही कारण है कि भोजन करने से पूर्व भगवान को भोग लगाने का विधान है। जिससे कि हम केवल शुद्ध और उचित आहार ही ग्रहण करें। श्रीमदभगवद् गीता के सत्रहवें अध्याय में भोजन के तीन प्रकारों सात्विक, राजसिक एवं तामसिक का उल्लेख मिलता है। सात्विक आहार शरीर के लिए लाभकारी होते हैं और आयु, गुण, बल, आरोग्य तथा सुख की वृद्धि करते हैं। इस प्रकार के आहार में गौ घृत, गौ दुग्ध, मक्खन, बादाम, काजू, किशमिश आदि मुख्य हैं। राजसिक भोजन कड़वे, खट्टे, नमकीन, गर्म, तीखे व रुखे होते हैं। इसके सेवन से शरीर में दुख, शोक, रोग आदि उत्पन्न होने लगते हैं। इमली अमचूर, नींबू, छाछ, लाल मिर्च, राई जैसे आहार राजसिक प्रकृति के माने गए हैं। तामसिक भोजन किसी भी दृष्टि से शरीर के लिए लाभकारी नहीं होते। बासी, सड़े-गले, दुर्गंध युक्त, जूठे, अपवित्र और त्याज्य आहार तामस भोजन के अंतर्गत माने जाते हैं। श्रीमद्भागवद गीता के अनुसार सात्विक भोजन करने वाला दैवी सम्पत्ति का स्वामी होता है।
