
देश में सदियों से निराशा और आशा के बीच कई लोग चले। आश्चर्य यह कि निराशा में खुद को समेटते समेटते भी कई सफल हो गए। आशा में सफलता तब तक रूठी रहेगी, जब तक पगार हमारे साथ रहेगी। ऐसी कोई पगार नहीं है जो किसी को निराश न करे। आशा तो दिहाड़ी में है। सुबह को शाम में बदलने के लिए केवल सूरज ही दिहाड़ी नहीं लगाता, बल्कि हर दिहाड़ी में दिन है और पगार में रात है । वैसे निराशा और आशा के बीच देश पहले ही संपत्तियों का बंटवारा कर चुका है । जिन्हें अधिक मिलीं उन्हें निराशा है, लेकिन जहां लैंडस को सरकार देने का वादा करती है, वहां शाश्वत आशा है। शाश्वत आशा न भगवान दे सकता, न ही भाग्य और न ही भारतीय लोकतंत्र, लेकिन चुनाव चाहे पंचायत का हो, विधानसभा का हो या संसद के लिए हो, आशा बार-बार जन्म लेती है। अब तो हालत यह कि आशा चलती सरकारों से नहीं, बल्कि दलबदलुओं से मिलती है। हमें आशा हर दलाल से है, हर रिश्वत में यह आशा है। कि अब सौ फीसदी काम होगा। आप बिना रिश्वत के घूम आइए सरकारी व्यवस्था में, मिलेगी तो निराशा ही। निजी बनाम सरकारी क्षेत्र में सफलता का राज निराशा है। देश और देश की व्यवस्था निजी क्षेत्र को निराशा में सफल होने की अभिलाषा सिखाती है। इसीलिए वहां पूछा जाता है कि किसमें ज्यादा निराशा है, स्वामी या प्राइवेट कर्मचारी में । निराशा अब खानदानी नुस्खा जैसी है। अकसर बड़े-बड़े व्यापारिक घराने हमेशा निराशा मूड में रहते हैं । अत्यधिक धन दौलत पाकर भी जो निराश रहता है, वही अमीर बने रह सकता है। देश का आशावाद तो कर्मचारी अपने सिर पर उठाते हैं। जो महंगाई में, बैंक लोन की किस्तों में और पगार के साथ जुड़े परिवार के रिश्तों में आशा देख सकता है, वहीं रीढ़ की हड्डी वाला कर्मचारी है। हमारे देश की आशा अब घर के बजाय विदेश में ज्यादा दिखती है। पूरे विश्व में हमारी आशा का अंतरराष्ट्रीयकरण समझना हो, तो अमरीका में ट्रंप की जीत में मिल जाएगा। हमें उम्मीद है कि ट्रंप हमारे बारे में सोचता रहेगा। इसी तरह हमारी आशा चीन को भी सोचने पर मजबूर कर देगी एक दिन । आशा और निराशा के बीच प्रतिस्पर्धा को समझना हो तो भैंस से पूछो। वह कभी भी आशा के साथ छप्पड़ में नहीं जाती, बल्कि निराशा उसे वहां बार-बार ले जाती है। सदियों से उसे यह समझ नहीं आ रहा कि छप्पड़ में घुसना आसान है या बाहर निकलना । खैर समझ हमारी अक्ल को भी नहीं आ रहा कि वह बड़ी है या भैंस | लोगबाग अक्ल और भैंस के मुकाबले में कभी अडानी की ओर देखते हैं, कभी ट्रंप की ओर, तो कभी अमरीका की जनता की ओर देख कर खुश होते हैं कि वहां भी चुनाव में आशा और निराशा के बीच कोई फैसला नहीं हो रहा। दरअसल आशा और निराशा दोनों सगी बहनें हैं। निराशा बड़ी और आशा छोटी । मुश्किल यह कि इनकी एक जैसी सूरत के कारण हम निराशा में अक्सर आशा को पुकारते हैं और आशा में निराशा को निहारते हैं। बढ़ती आबादी देख देश निराशा के साथ होता है, लेकिन झोंपड़ी में भी बच्चे की किलकारी पर कोई गरीब आशावादी होता है। हम डालडा घी के किसी पुराने डिब्बे में आशा को संजो सकते हैं या धारावी की झुग्गी बस्ती में आशा के साथ जी सकते हैं। हमारा आशावाद पूरे विश्व में कौतुक पैदा करता है। शेष विश्व में कोई ऐसी आशा नहीं कि महाकुंभ जैसा उत्साह इकट्ठा करा दे। हम पाप धोने के लिए भी आशा कर सकते हैं। एक सदी के बाद एक साथ नहाने की आशा कर सकते हैं।
