
राज्य खुद को किस रूप में अंगीकार करे, इसको लेकर एक मानसिक स्थायित्व चाहिए। अंततः हिमाचल के आर्थिक समाधान पिछलग्गू नहीं हो सकते और न ही कृत्रिम उपचारों से यह सदी लांघी जा सकती है। इतिहास भले ही हमें इस मोड़ तक ले आया, लेकिन आगे बढने के लिए संदर्भ बदलने पड़ेंगे। यह सुर और खुर की लड़ाई है, जहां विवेचना के साथ सख्त कदमों के निशान चाहिएं। बेशक विवेचना पहले भी होती रही और खाके भी बनते रहे, लेकिन आत्मबोध के रास्तों पर भ्रम रहे या प्रदेश अपने भविष्य की कामना में लंबे डग नहीं ले पाया। बेशक हिमाचली अधिकारों के अध्याय लंबे होते रहे, लेकिन ऊंची दुकान के पकवान फीके ही रहे। संघर्षशील सरकारों के नए अवतरण में सुक्खू के व्यवस्था परिवर्तन की ध्वनि एक साथ कई दीवारों से टकरा रही है, तो केंद्र के सरकारी उपक्रमों से विद्युत परियोजनाओं की मिलकीयत वापसी का एक खाका उभरा है। जीने का एक स्थायी फार्मूला आत्मनिर्भर होना है, तो अब इन्हीं संदर्भों में अधिकारों की एक नई परिपाटी जोड़ी जा रही है। कहना न होगा कि हिमाचल की ताकत, आर्थिक संभावना के अक्स या तो जल संसाधनों में या जंगल में कैद हुई प्रकृति में हैं। हुए होंगे बहुत सारे समझौते, ये हमारी मजबूरियां थीं, लेकिन अब बैसाखियां उतार कर चलने की नई कोशिश तो करें । चलने की इसी का एक नाम है व्यवस्था परिवर्तन या हिमाचली अधिकारों के करीब आसन जमाने का। पहले ही जोगिंद्रनगर की शानन विद्युत परियोजना पर हिमाचल के अधिकार क्षेत्र का न्यायिक समाधान खोजा जा रहा है, तो अब चालीस साल हिमाचल की आर्थिक क्षमता चूस चुकीं एनएचपीसी व एसजेवीएन की बैरास्यूल और चमेरा विद्युत परियोजनाओं को इनकी मियाद के बाद हिमाचल अपनी हथेली पर रखना चाह रहा है। शांता कुमार के बाद सुखविंदर सिंह सुक्खू ऐसे दूसरे मुख्यमंत्री हैं, जो पानी की अमानत में हिमाचल का भविष्य देख रहे हैं। शांता कुमार केंद्र से बिजली की 12 प्रतिशत मुफ्त रॉयल्टी ले आए थे जो आर्थिक फलक पर एक क्रांति, एक समाधान और राज्य के अस्तित्व की जोरदार निशानी थी। इन्हीं निशानियों में आत्मनिर्भरता के लक्षण पैदा करते हुए सुक्खू सरकार ऐसी परियोजनाओं के कार्यकाल को चालीस साल की सीमा रेखा में वर्षों के आधार पर बारह, अठारह और तीस प्रतिशत मुफ्त बिजली रॉयल्टी के साथ- साथ उनकी वापसी का दावा कर रही है। यह इसलिए नहीं कि यह हो नहीं सकता, बल्कि इसलिए कि ऐसा होना ही हमारा आर्थिक अधिकार है। राज्यों के कच्चे माल को मिले रॉयल्टी अधिकारों की बुनियाद में देखें तो हिमाचल को हाथ-पांव मारने पड़ेंगे। इसी परिप्रेक्ष्य में केंद्रीय उपक्रमों से प्रदेश की मिलकीयत की पैरवी हो रही है और यह बीबीएमबी की आर्थिक पैमाइश से पंजाब पुनर्गठन तक की आत्मा को छूती है। सुक्खू सरकार एनएचपीसी के पास परियोजना प्रस्तावना के तहत 380 बीघा अतिरिक्त जमीन के अलावा बीबीएमबी के तहत आई ऐसी जमीन को भी माप रही है। यानी आय के अतिरिक्त साधन पैदा करने के लिए हमें निश्चित रूप से अतिरिक्त जमीन की जरूरत है। विडंबना यह कि अपने ही घर में हिमाचल किसी न किसी परियोजना का किरायेदार बन गया है।
