मैं और मेरा एनजीओ…

मैं और मेरा एनजीओ...
मैं और मेरा एनजीओ…

जन कल्यण की भावनाओं से भरकर मैंने एक एनजीओ का गठन कर गरीब, बेसहारा और विकलांगों के लिए कार्यक्रम शुरू कर दिया है। मेरी इस संस्था को राजकीय कोष से ही नहीं अपितु विदेशों से भी धन आ रहा है। विदेशी लोग इस संस्था के उद्देश्य पढकर अभिभूत हो गए थे और उन्हें लगा था पूरे देश में गरीबों और मानसिक विकलांगों के लिए मैं अकेला काम कर रहा हूं। फील्ड वर्क के लिए मेरे पास चार-पांच बेकारी से जूझते नौजवान हैं, जो थस्ट एरिया खोजकर मेरे प्रोजेक्ट ऑफिसर्स को वस्तुस्थिति बताते हैं, जिसे मेरे माहिर प्रोजेक्ट अफसर बखूबी कागजी जामा पहना देते हैं। यह रिपोर्ट मैं मेरी संस्था को धन देने वाली एजेंसियों को भेजता हूं तो वे और अधिक वित्तीय सहायता एनजीओ को उपलब्ध कराते हैं। इन धन में से दो प्रतिशत सहयोगियों को बांट देता हूं, बाकि राशि मैं संस्था में तथा मेरे घर में सुख- सुविधाएं जुटाने-बढ़ाने में खर्च करता हूं । यह सब करने के बाद भी धन इतना बचता है कि वह कुछ संस्था तथा कुछ मेरे निजी खातों में जमा हो जाता है। शनैः शनैः यह जमा राशि कई लाखों में तब्दील हो गई है जिसे मैं अपनी अय्याशी और मौज-मस्ती में हाथों खर्च करता हूं। मैं और कोई कामकाज नहीं करता, सिवाय इस संस्था को रन करने के। संस्था को बैनर व उद्देश्य पढकर बहुत से जरूरतमंद आते हैं, लेकिन हमारे पटुकर्मी उन्हें समझा-बुझाकर सहायता आने पर मदद का आश्वासन देते हैं। वे इतने खुश होते हैं कि मेरी और मेरी संस्था के कसीदे पढने लगते हैं। उन्हें लगता है। कि उनकी विवशता मिटने के दिन अब ज्यादा दूर नहीं हैं। उनका कल्याण नए सत्र और बजट में होकर रहेगा। यह भरोसा ही मेरे एनजीओ की साख है। घर और दफ्तर में शानदार फर्नीचर, एसी और गाड़ी अलग-अलग विद्यमान हैं। मेरे दोनों बच्चे कान्वेंट से एजुकेट होकर उच्च शिक्षा प्राप्त कर फॉरेन में ही शिफ्ट हो गए हैं। फॉरेन में तो मैं भी शिफ्ट हो जाता, लेकिन फॉरेन की तमाम सुख-सुविधाएं मैंने अपने देश भारत में ही जुटा ली हैं। कुछ लोग मेरी आलोचना इस बात को लेकर करते भी हैं कि मैंने एनजीओ के सहारे सब कुछ जुटा लिया है। लेकिन मैं उनकी परवाह न करते हुए अपने एनजीओ को पावन उद्देश्यों के सहारे प्रगति के नए से नए सोपान देने में सफल रहा हूं। मुझे एनजीओ चलाने की प्रेरणा मेरी पत्नी ने ही दी। उसी ने बताया कि निठल्लेपन से अच्छा है, मैं अपनी बातूनी बकवास को कागज पर मूर्त रूप देऊं । उसी ने पीटर साब की सफलता की कहानी भी बताई कि कैसे वे फकीर से अमीर बन गए थे। अनपढ़ पत्नी की सीख मेरे काम आई और मैंने अविलंब जनकल्याण के अछूते प्रसंग लेकर अपनी संस्था का पंजीकरण अपने ही घरवालों के फर्जी नाम भरकर करवाया। विद इन टाइम मैं एनजीओ से कमाने-खाने लगा। इसके बाद मैंने पीछे मुड़कर नहीं देखा । पीछे का फटीचर अतीत मैं देखना भी नहीं चाहता था। पिता ने विरासत में मुझे संस्कार एवं मूल्यों की जो शिक्षा दी थी, उसे मैंने घूल चटा दी। मैं अपनी सफलता की यह कहानी किसी को नहीं बताता । एनजीओ मेरा ही नहीं, पता नहीं कितने सारे कल्याणकारी मूल्यों को लेकर चल रहे हैं। लेकिन यह सब सरकारी अफसरों की कृपा और उनसे चल रही मिलीभगत से है। वरना मेरे अकेले की क्या बिसात । करोड़ों सरकारी रुपए देश के सैंकड़ों-हजारों एनजीओ ऐसे ही हड़प रहे हैं, और लोक लुभावने फरेबों से सबको ठग रहे हैं। आप कोई एनजीओ मत बनाना, यह बहुत मेहनत का काम है। भगवान आपकी रक्षा करे।

मैं और मेरा एनजीओ...
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