नई दिल्ली। कानून विशेषज्ञों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने मांग की है कि राजनीतिक दलों को पॉश एक्ट (महिलाओं के साथ यौन उत्पीड़न से जुड़ा कानून) के दायरे में लाया जाए। उनका कहना है कि यह कानून लैंगिक समानता और जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए बहुत जरूरी है। उनकी ओर से यह बयान तब सामने आया है, जब सोमवार को सुप्रीम कोर्ट ने एक याचिका खारिज कर दी, जिसमें राजनीतिक दलों को पॉश एक्ट के तहत महिलाओं के अधिकारों की सुरक्षा सुनिश्चित करने का निर्देश देने की मांग की गई थी। जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस मनमोहन की बेंच करते हुए कहा कि याचिकाकर्ताओं को चुनाव ने याचिका पर सुनवाई आयोग से संपर्क करना चाहिए, जिससे यह कानून राजनीतिक दलों पर लागू किया जा सके। हेल्पिंग हैंड्स नाम के गैर-सरकारी संगठन (एनजीओ) की निदेशक और वकील सोनाल मट्टू ने कहा कि राजनीतिक दलों को कानून के तकनीकी पहलू के बजाय उसके भावनात्मक और उद्देश्यपूर्ण दृष्टिकोण पर फोकस करना चाहिए। उन्होंने कहा कि समस्या यह है कि वे कानून की सख्त परिभाषा को देख रहे हैं, न कि उसके मकसद को। अग हम कानून के मकसद को समझें तो हर राजनीतिक दल के पास एक अनुशासन समिति होती है, जो दल के सदस्यों के आचरण को देखती है। मट्टू ने यह भी कहा कि राजनीतिक दल इस तरह की समितियां बना सकते हैं जो महिलाओ के साथ गलत व्यवहार को रोकने के लिए काम करें। हालांकि, एक प्रमुख वकील शिल्पी जैन ने राजनीतिक दलों की आंतरिक समीतियों की स्वतंत्रता को लेकर चिंता जताई। उन्होंने कहा कि अगर आंतरिक समिति किसी राजनीतिक दल द्वारा वित्त पोषित है, तो उसमें प्रभावी कार्रवाई करने की क्षमता नहीं होगी। ऐसी समितियों को स्वतंत्र होने की जरूरत है, जो दुर्भाग्यवश हमारे राजनीतिक माहौल में मुश्किल है। जैन ने यह भी कहा कि इस तरह के मामलों में न्यायालय को ही फैसला लेना चाहिए, क्योंकि आंतरिक समितियों में पक्षपाती रवैया हो सकता है।

