
कुछ स्क्रैच ऐसे होते हैं जिन्हें बुरी नजर से नहीं देख सकते। लोगबाग अपने वाहनों में जबरिया स्क्रैच लगा लेते हैं ताकि नजर न लगे, लेकिन जिसे लगनी है, उसे चुन कर लग जाती है। कुछ लोग तो अपने शरीर और विचारों पर आए स्क्रैच की भी परवाह नहीं करते, लेकिन कुछ ऐसे भी हैं जो सडक़ से सदन तक इन्हें खोजते रहते हैं। हर चुनाव के प्रचार में स्कैरच काम आते हैं, लेकिन दिल्ली चुनाव परिणाम के बाद सबसे अधिक घायल स्क्रैच ही दिखाई दिए । बावजूद इसके राजनीति में हमेशा कुछ स्क्रैच अच्छे होते हैं। जीती हुई पार्टियों के सामने विपक्ष के स्क्रैच अच्छे व वफादार होते हैं। दरअसल सफल नेता होना स्क्रैच फ्री होना है। हम नागरिक वर्षों से सियासी स्क्रैच देख रहे हैं, लेकिन वे नहीं देखते जिन्हें जनता देख रही है। यह देखने-देखने अंतर है। किसी ने गंगा को हरिद्वार में देखा, किसी ने प्रयागराज में और किसी ने दोनों ही जगह सरकार के रुतबे में अपने विश्वास को देखा। वैसे स्क्रैच फ्री दृष्टि के लिए विश्वास परम उपाय है। एक बार विश्वास करो कि हम भारतीय पूरे विश्व की सबसे अव्वल नस्ल हैं, हम सारे संसार को गंदगी से भरा पाएंगे। हमारे विश्वास की कई आंखें हैं और इसीलिए बदल-बदल कर देखते हैं। आंखों की परख डाक्टर भी क्या करेंगे, जिस तरह शायरों ने की या आज के नेता करते हैं। वे हमारी आंखों के सामने ऐसा निरीक्षण कर देते हैं कि हमें सिर्फ सामने विश्वास ही विश्वास नजर आता है। हमें विश्वास था, इसलिए आंखों ने हमेशा दिल्ली पर विश्वास किया। खुद पर विश्वास करना दिल्ली चुनाव सिखा गया। यही विश्वास कांग्रेस को केजरीवाल की हार में दिखा तो सारे जन इकट्ठे हो गए। वहां खुशी इस बात की थी कि आम आदमी पार्टी की गाड़ी पर सबसे अधिक स्कैरच थे। उनके स्क्रैच इन्हें अच्छे लगे, वरना विधानसभा के सदन में तो यह पार्टी न पहले देख पाई और न ही अब देखने की हैसियत रखती है । हैसियत तो सबसे कमजोर मध्यम वर्ग की है। सारे देश के स्क्रैच इसी वर्ग को दर्द देते हैं। मिडल क्लास की पढ़ाई, डिग्री और रोजगार पर चस्पां स्क्रैच दिखते नहीं, सालते हैं। इसलिए जिन्होंने आईटी पढ़ा, अब उन्हें कम्प्यूटर के स्क्रैच दर्द देते हैं। दूसरी ओर सरकारी कर्मचारी तो एनपीएस से लेकर यूपीएस तक के स्क्रैच खोज लाए । सरकारी कर्मचारी इसीलिए अपनी कुर्सी पर न ज्यादा वजन डालता और न ही बैठता ताकि कहीं सेवा में कोई स्क्रैच न उभर आए। अब तो सरकारी डाक्टर भी मरीजों को निजी अस्पतालों में भेज कर सरकार के अस्पतालों को स्क्रैच फ्री बनाने लगे हैं। हमें भारत को स्क्रैच फ्री बनाना है, इसलिए अब इतिहास से खोज रहे हैं। महात्मा गांधी के चरखे, अंबेडकर के दफ्तर और नेहरू के कद में वे स्कैरच खोज लाए हैं। इससे इतिहास के कई नायक अब गायब होने लगे और अब इसका सामाजिक अर्थ यह कि लोग अब अपने पूर्वजों का नाम भी छुपाने लगे हैं, ताकि कहीं कोई उनमें से जाति और धर्म के स्क्रैच न खोज पाए। उस दिन राहुल घबरा गए। किसी ने कहा, ‘आपकी भारत यात्रा से सडक़ों पर स्क्रैच उभर आए हैं।’ जवाब था, ‘नहीं भाई, वहां तो पहले से गड्ढे थे। ये गड्ढों के स्क्रैच कहां दिखाई देते । यह तो गलत इल्जाम है। मैं तो अपनी पार्टी के स्क्रैच भी नहीं देख पाया, तो मेरे कदमों के नीचे खोजने की जरूरत नहीं ।’ उस दिन पहली बार राहुल सोचने को मजबूर हुए, ‘आखिर कितने स्क्रैच इकट्ठे करने पड़ते हैं। राजनीति में सफल होने के लिए।’ उस दिन से राहुल अपनी ही जमीन पर चलते हुए स्क्रैच से डरने लगे, लेकिन विरोधी गठबंधन ने मिलजुल कर अलग चुनाव चिन्ह ‘स्कैरच’ ले लिया ।
