
अंतत: हिमाचल ने अपने शून्य से अर्थ खोजने शुरू किए, तो दागदार होने की वजह भी मिल गई। दरअसल हम मूल प्रश्नों को आगे धकेलते रहे हैं और एक संकीर्णता का माहौल हमारा हालचाल पूछने लगा है। अब इन्हीं धाराओं में बहते कई भीगे हुए प्रश्न मिल जाएंगे, तो रिवायत बदलने की इच्छाशक्ति पैदा करनी होगी ।हाल यहां जिक्र शाहपुर के विधायक केवल सिंह पठानिया का जो शून्यकाल में हिमाचली कलाकारों को मंचों पर मिल रही शून्यता का सवाल उठा रहे हैं। यह कोई नई बहस नहीं और न ही ऐसा तथ्य है जिससे हिमाचली व्यवस्था अनभिज्ञ हो, लेकिन विडंबना यह कि हमारी महफिल नगीने स्थानीय कलाकार नहीं बने। विधायक पठानिया ने सांस्कृतिक समारोहों में हिमाचली कलाकार के अधिकार की बात उठाते हुए यह मांग रखी है कि संस्कृति के अपने दरवाजे अपने ही घर में तंग नहीं होने चाहिएं, मगर हकीकत यह है कि सारा मनोरंजन अफरा-तफरी में चल रहा है। ऐसी सूचनाएं हैं कि पंजाब के ही एक गायक ने पिछले साल से अब तक कुछ कार्यक्रमों में सवा करोड़ बटोर लिए। यह इसलिए कि हमारे जनप्रतिनिधियों और नौकरशाहों के हाथों में ताली बजाने की खुजली सिर्फ किसी बाहरी कलाकार को बुला कर ही हटती है। अब तो ऐसे भी समारोह होने लगे हैं, जहां सांस्कृतिक कारणों के बजाय नेताओं की हस्ती के खातिर -नगाड़े बजने लगे हैं। हमने बार-बार लिखा और उस वक्त लिखा था, जब कुल्लू के मंच पर ही ठाकुर दास राठी को समय नहीं मिला था। हमने उस चैक के पीछे भी लिखा जिसकी मोटी राशि किसी बाहरी कलाकार के नामहुई थी। हम वर्षों से लिख रहे हैं कि सांस्कृतिक समारोहों व तमाम मेलों के आयोजन के लिए एक मेला विकास प्राधिकरण का गठन होना चाहिए। प्रदेश के मेलों और सांस्कृतिक समारोहों का वर्गीकरण करते हुए इनसे जुड़ी आर्थिकी का संरक्षण जरूरी है। प्रदेश में छोटे-बड़े मेलों, धार्मिक तथा सांस्कृतिक समारोहों को जोड़कर देखें तो हर साल पांच से सात सौ करोड़ का व्यापार होता है। ये मेले बिखरे हुए हैं। कब कोई सियासी फैसला इन्हें जिला से राज्य और राज्य से अंतरराष्ट्रीय नाम से अलंकृत कर दे, कोई नहीं जानता। जाहिर है अब मेलों के आयोजन के लिए नए व बड़े स्थान चाहिएं, सांस्कृतिक संध्याओं के आयोजन को स्थायी मंच चाहिएं तथा कलाकारों के चयन की एक पद्धति चाहिए। अगर मेला प्राधिकरण को आय-व्यय के हिसाब से वार्षिक कैलेंडर बनाने को प्रेरित किया जाए, तो इसका लाभ पर्यटन उद्योग को भी होगा। पूरे प्रदेश में इस तरह दो-ढाई सौ मेला ग्राउंड विकसित होंगे तथा अधोसंरचना निर्माण में भी भूमिका का विस्तार होगा। इतना ही नहीं, मेला विकास प्राधिकरण के मार्फत पुस्तक, व्यापार, औद्योगिक, फूड, पशु तथा आधुनिक तकनीक के प्रसार में विविध मेलों का आयोजन हो सकता है। मेलों के मार्फत पारंपरिक छिंजों के आयोजन से कुश्ती प्रशिक्षण के कई केंद्र विकसित हो सकते हैं। प्रदेश के ट्राइबल मेलों के अलावा हरियाणा की तर्ज पर सूरजकुंड सरीखे मेलों के आयोजन की पृष्ठभूमि चंडीगढ़ के समीप लगते इलाकों में विकसित की जा सकती है।
